Friday, 11 September 2015

आँखे ही आँखे

आँखे ही आँखे
दिखती हर जगह
छोटी है बड़ी भी
मासूम और गरीब भी
ख़ूबसूरत तो है ही 
है और नशीली भी
कुछ असली कुछ
नकली रंगो की
खुशमिजाज जितनी कम
चौगुनी रोती सी
दर्द और आसुंओं मे
लिपटी कितनी
फिर भी कई
मुस्कुराती सी
आँखे ही आँखे हर जगह
कुछ अपनी
कुछ परायी सी|
सच्ची झूठी भली बुरी
मासूम और चालाक भी
अपने ही मिजाज में उलझी तो
कइ डर में लिपटी सी|
वासना, लालच और स्वार्थ की
तो मंड़ि पे मंड़ि भरी पड़ी
पिता के प्यार और
माँ की करुणा
मानो बाकि बचीकुचि
बोले तो खोले मनवा कई
न बोले तो गुस्सेल सी
पूरी एक किताब जैसे
कभी अधूरी कहानी सी
आँखे ही आँखे हर जगह
कही भाव में डूबे सूरदास की
कही अभागे धृतराष्ट सी|

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